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June 04, 2008

The unflinching hope

From a poem by the late poet, Ghanshyam

...किस बल पे गुमान है बेफ़िक्रे को?
स्वर्ण-मुद्राओं से भरे किस अदृश्य हाथ को
देखता है वह शुन्य से अपनी ओर बढ़ते?

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